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पपीते कि उन्नत खेती

Team Krushi Samrat by Team Krushi Samrat
January 23, 2019
in हिन्दी
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पपीते कि उन्नत खेती
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पपीते का फल थोड़ा लम्बा व गोलाकार होता है तथा गूदा पीले रंग का होता है। गूदे के बीच में काले रंग के बीज होते हैं। पेड़ के ऊपर के हिस्से में पत्तों के घेरे के नीचे पपीते के फल आते हैं ताकि यह पत्तों का घेरा कोमल फल की सुरक्षा कर सके। कच्चा पपीता हरे रंग का और पकने के बाद हरे पीले रंग का होता है। आजकल नयी जातियों में बिना बीज के पपीते की किस्में ईजाद की गई हैं।  एक पपीते का वजन 300, 400 ग्राम से लेकर 1 किलो ग्राम तक हो सकता है।

पपीते के पेड़ नर और मादा के रुप में अलग-अलग होते हैं लेकिन कभी-कभी एक ही पेड़ में दोनों तरह के फूल खिलते हैं। हवाईयन और मेक्सिकन पपीते बहुत प्रसिद्ध हैं। भारतीय पपीते भी अत्यन्त स्वादिष्ट होते हैं। अलग-अलग किस्मों के अनुसार इनके स्वाद में थोड़ी बहुत भिन्नता हो सकती है।

 

भूमिका :

पपीता स्वास्थ्यवर्द्धक तथा विटामिन ‘ए’ से भरपूर फल होता है। पपीता ट्रापिकल अमेरिका में पाया जाता है। पपीते का वानस्पतिक नाम केरिका पपाया है। पपीता कैरिकेसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य है। पपीता एक बहुलिडीस पौधा है तथा मुरकरटय से तीन प्रकार के लिंग नर, मादा तथा नर व मादा दोनों लिंग एक पेड़ पर होते हैं। पपीता के पके व कच्चे फल दोनो उपयोगी होते हैं। कच्चे फल से पपेन बनाया जाता है। जिसका सौन्दर्य जगत में तथा उद्योग जगत में व्यापक प्रयोग किया जाता है। पपीता एक सदाबहार मधुर फल है, जो स्वादिष्ट और रुचिकर होता है। यह हमारे देश में सभी जगह उत्पन्न होता है। यह बारही महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च और मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है। इसका कच्चा फल हरा और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। पका पपीता मधुर, भारी, गर्म, स्निग्ध और सारक होता है। पपीता पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है।

पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आती। इसकी पूरी ऊँचाई क़रीब 10-12 फुट तक होती है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ता है, नीचे से एक एक पत्ता गिरता रहता है और अपना निशान तने पर छोड़ जाता है। तना एकदम सीधा हरे या भूरे रंग का और अन्दर से खोखला होता है। पत्ते पेड़ के सबसे ऊपरी हिस्से में ही होते हैं। एक समय में एक पेड़ पर 80 से 100 फल तक भी लग जाते हैं।

 

पपीते कि किस्मे :

पपीते की मुख्य किस्मों का विवरण

 

पूसा डोलसियरा :

यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है।

 

पूसा मेजेस्टी :

यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है।

 

‘रेड लेडी 786’:

पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे ‘रेड लेडी 786’ नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासीयत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल  मिलने की गारंटी होती है।

पपीते की अन्य किस्मों में नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, ऐसे में फूल निकलने तक यह पहचानना कठिन होता है कि कौन सा पौध नर है और कौन सा मादा। इस नई किस्म की एक खासीयत यह है कि इसमें साधरण पपीते में लगने वाली ‘पपायरिक स्काट वायरस’ नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ  9 महीने में तैयार हो जाती है।

इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्त्व कैरोटिन,पोटैशियम,मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने तकरीबन 3 सालों की खोज के बाद इसे पंजाब में उगाने के लिए किसानों को दिया। वैसे इसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और राजस्थान में भी उगाया जा रहा है।

 

पपीते का फुल :

पूसा जाइन्ट :

यह किस्म बहुत अधिक वृद्धि वाली मानी जाती है। नर तथा मादा फूल अलग-अलग पौधे पर पाये जाते हैं। पौधे अधिक मज़बूत तथा तेज़ हवा से गिरते नहीं हैं।

 

पूसा ड्रवार्फ :

यह छोटी बढ़वार वाली डादसियश किस्म कही जाती है।जिसमें नर तथा मादा फूल अलग अलग पौधे पर आते हैं। फल मध्यम तथा ओवल आकार के होते हैं।

 

पूसा नन्हा :

इस प्रजाति के पौधे बहुत छोटे होते हैं। तथा यह गृहवाटिका के लिए अधिक उपयोगी होता है। साथ साथ सफल बागवानी के लिए भी उपयुक्त है।

 

कोयम्बर-1 :

पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्य आकार के तथा गोलाकार होते हैं।

 

कोयम्बर-3 :

यह एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। पौधा लम्बा, मज़बूत तथा मध्य आकार का फल देने वाला होता है। पके फल में शर्करा की मात्रा अधिक होती है। तथा गूदा लाल रंग का होता है।

 

हनीइयू (मधु बिन्दु) :

इस पौधे में नर पौधों की संख्या कम होती है,तथा बीज के प्रकरण अधिक लाभदायक होते हैं। इसका फल मध्यम आकार का बहुत मीठा तथा ख़ुशबू वाला होता है।

 

पपीते का पेड :

कूर्गहनि डयू :

यह गाइनोडाइसियश जाति है। इसमें नर पौधे नहीं होते हैं। फल का आकार मध्यम तथा लम्बवत गोलाकार होता है। गूदे का रंग नारंगी पीला होता है।

 

वाशिंगटन :

यह अधिक उपज देने वाली विभिन्न जलवायु में उगाई जाने वाली प्रजाति है। इस पौधे की पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। जो इस किस्म की पहचान कराते हैं। यह डाइसियन किस्म हैं फल मीठा,गूदा पीला तथा अच्छी सुगंध वाला होता है।

 

पन्त पपीता-1 

इस किस्म का पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्यम आकार के गोल होते हैं। फल मीठा तथा सुगंधित तथा पीला गूदा होता है। यह पककर खाने वाली अच्छी किस्म है तथा तराई एवं भावर जैसे क्षेत्र में उगाने के लिए अधिक उपयोगी है।

 

पपीते के लिये आबोह्वा :

पपीता एक उष्ण कटिबंधीय फल है,परंतु इसकी खेती समशीतोष्ण आबोहवा में भी की जा सकती है। ज्यादा ठंड से पौधे के विकास पर खराब असर पड़ता है। इसके फलों की बढ़वार रूक जाती है। फलों के पकने व मिठास बढ़ने के लिए गरम मौसम बेहतर है।

 

पपीता कि खेती योग्य भूमी या मृदा :

इस पपीते के सफल उत्पादन के लिए दोमट मिट्‌टी अच्छी होती है। खेत में पानी निकलने का सही इंतजाम होना जरूरी है, क्योंकि पपीते के पौधे की जड़ों व तने के पास पानी भरा रहने से पौधे का तना सड़ने लगता है। इस पपीते के लिहाज से मिट्‌टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक होना चाहिए।

पपीता के लिए हलकी दोमट या दोमट मृदा जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए इसके लिए दोमट, हवादार, काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और इसका अम्ल्तांक 6.5-7.5 के बीच होना चाहिए तथा पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए। मध्य काली और जलोढ़ भूमि इसके लिए भी अच्छी होती है ।

यह मुख्य रूप से उष्ण प्रदेशीय फल है इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22-26 डिग्री से०ग्रे० के बीच और 10 डिग्री से०ग्रे० से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंड तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है।

पपीता में नियंत्रित परगन के अभाव और बीज प्रवर्धन के कारण क़िस्में अस्थाई हैं और एक ही क़िस्म में विभिन्नता पाई जाती है। अतः फूल आने से पहले नर और मादा पौधों का अनुमान लगाना कठिन है। इनमें कुछ प्रचलित क़िस्में जो देश के विभिन्न भागों में उगाई जाती हैं और अधिक संख्या में मादा फूलों के पौधे मिलते हैं मुख्य हैं। हनीडियू या मधु बिंदु, कुर्ग हनीडियू, वाशिंगटन, कोय -1, कोय- 2, कोय- 3, फल उत्पादन और पपेय उत्पादन के लिए कोय-5, कोय-6, एम. ऍफ़.-1 और पूसा मेजस्टी मुख्या हैं। उत्तरी भारत में तापक्रम का उतर चढ़ाव अधिक होता है। अतः उभयलिंगी फूल वाली क़िस्में ठीक उत्पादन नहीं दे पाती हैं। कोय-1, पंजाब स्वीट, पूसा देलिसियास, पूसा मेजस्टी, पूसा जाइंट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा (म्यूटेंट) आदि क़िस्में जिनमे मादा फूलों की संख्या अधिक होती है और उभयलिंगी हैं, उत्तरी भारत में काफी सफल हैं। हवाई की ‘सोलो’ क़िस्म जो उभयलिंगी और मादा पौधे होते है, उत्तरी भारत में इसके फल छोटे और निम्न कोटि के होते हैं।

 

पपीते कि बोआई :

पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए:

  1. बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।
  2. बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूँकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।
  3. बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्‌टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।
  4. क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।
  5. क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।
  6. जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।
  7. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।

पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए।

बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई,करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकार की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2′ गहराई पर 3′ x 6′ के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2′ गोबर की खाद के मिश्रण से ढ़क कर लकड़ी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल,जून-अगस्त में उगाने चाहिए।

 

पपीते का रोपण :

अच्छी तरह से तैयार खेत में 2 x2 मीटर की दूरी पर 50x50x50 सेंटीमीटर आकार के गड्‌ढे मई के महीने में खोद कर 15 दिनों के लिए खुले छोड़ देने चाहिएं, ताकि गड्‌ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े-मकोड़े, रोगाणु वगैरह नष्ट हो जाएँ।

पौधे लगाने के बाद गड्‌ढे को मिट्‌टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊँचा रहे। गड्‌ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्‌टी अच्छी तरह बैठ जाए।

वैसे पपीते के पौधे  जून-जुलाई या फरवरी -मार्च में लगाए जाते हैं, पर ज्यादा बारिश व सर्दी वाले इलाकों में सितंबर या फरवरी -मार्च में लगाने चाहिए। जब तक पौधे अच्छी तरह पनप न जाएँ, तब तक रोजाना दोपहर बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

 

प्लास्टिक थैलीयौ मै बीज उगाना :

इसके लिए 200 गेज और 20 x 15 सेमी आकर की थैलियों की जरुरत होती है । जिनको किसी कील से नीचे और साइड में छेड़ कर देते हैं तथा 1:1:1:1 पत्ती की खाद, रेट, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं । प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं। उचित ऊँचाई होने पर पौधों को खेत में प्रतिरोपण कर देते हैं । प्रतिरोपण करते समय थाली के नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए।

 

गड्डे कि तयारी तथा पौधा रोपण :

पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि पानी न भर सकें। फिर पपीता के लिए 50x50x50 से०मी० आकार के गड्ढे 1.5×1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए और प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी.एच.सी. 10 प्रतिशत डस्ट मिलकर उपचारित कर लेना चाहिए। ऊँची बढ़ने वाली क़िस्मों के लिए1.8×1.8 मीटर फासला रखते हैं। पौधे 20-25 से०मी० के फासले पर लगा देते हैं। पौधे लगते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि गड्ढे को ढक देना चाहिए जिससे पानी तने से न लगे।

 

खाद व उर्वरक का प्रयोग :

पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए।

पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।

फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्‌टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।

 

पाले से पेड कि रक्षा :

पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग़ के चारों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज़ गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए।

उष्ण प्रदेशीय जलवायु में जाड़े और गर्मी के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है और आर्द्रता भी साल भर रहती है। पपीता साल भर फलता फूलता है। लेकिन उत्तर भारत में यदि खेत में प्रतिरोपण अप्रैल-जुलाई तक किया जाय तो अगली बसंत ऋतू तक पौधे फूलने लगते हैं और मार्च-अप्रैल या बाद में लगे फल दिसम्बर-जनवरी में पकने लगते हैं। यदि फल तोड़ने पर दूध, पानी से तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने योग्य हो जाता है। अच्छी देख-रेख करने पर प्रति पौधे से 40-50 किलो उपज मिल जाती है।

 

पपीते मै कीट बिमारी व उनकी रोकथाम :

प्रमुख रूप से किसी कीड़े से नुकसान नहीं होता है परन्तु वायरस, रोग फैलाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न रोग लगते हैं-

तने तथा जड़ के गलने से बीमारी :

इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत वोरडोक्स मिश्रण या कोंपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफ़ी रोकथाम होती है।

 

 

पपीते के अच्छे उत्पादन के लिये सिंचाई :

पानी की कमी तथा निराई-गुड़ाई न होने से पपीते के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः दक्षिण भारत की जलवायु में जाड़े में 8-10 दिन तथा गर्मी में 6 दिन के अंतर पर पानी देना चाहिए। उत्तर भारत में अप्रैल से जून तक सप्ताह में दो बार तथा जाड़े में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पानी तने को छूने न पाए अन्यथा पौधे में गलने की बीमारी लगने का अंदेशा रहेगा इसलिए तने के आस-पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए। पपीता का बाग़ साफ़ सुथरा रहे इसके लिए प्रत्येक सिंचाई के बाद पेड़ों के चारो तरफ हल्की गुडाई अवश्य करनी चाहिए।

पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का सही इंतजाम बेहद जरूरी है। गर्मियों में 6-7 दिनों के अंदर पर और सर्दियों में 10-12 दिनों के अंदर सिंचाई करनी चाहिए। बारिश के मौसम में जब लंबे समय तक बरसात न हो, तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है। पानी को तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इसके लिए तने के पास चारों ओर मिट्‌टी चढ़ा देनी चाहिए।

 

खरपतवार नियंत्रण :

पपीते के बगीचे में तमाम खरपतवार उग आते हैं, जो जमीन से नमी, पोषक तत्त्वों, वायु व प्रकाश वगैरह के लिए पपीते के पौधे से मुकाबला करते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार व उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता है। खरपतवारों से बचाव के लिए जरूरत के मुताबिक निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए। बराबर सिंचाई करते रहने से मिट्‌टी की सतह काफी कठोर हो जाती है, जिससे पौधे की बढ़वार पर उल्टा असर पड़ता है। लिहाजा 2-3 बार सिंचाई के बाद थालों की हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए।

 

 

इस सत्र के लिए हम किसानों की सुविधा के लिए, यह जानकारी अन्य किसानों की सुविधा के लिए लेख आप krushisamrat1@gmail.com ई-मेल आईडी या 8888122799 नंबर पर भेज सकते है, आपके द्वारा सबमिट किया गया लेख / जानकारी आपके नाम और पते के साथ प्रकाशित की जाएगी।

 

Tags: Papaya advanced farmingपपीते कि उन्नत खेती
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