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मसूर उत्पादन की उन्नत तकनीक

Team Krushi Samrat by Team Krushi Samrat
January 31, 2020
in हिन्दी, शेती
1
मसूर उत्पादन की उन्नत तकनीक
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मसूर उत्पादन की उन्नत तकनीक

उन्नतषीलप्रजातियाँ

मसूर कि उन्नत प्रजातीया

जलवायु

मसूर एक दीर्घ दीप्तिकाली पौधा है इसकी खेती उपोष्ण जलवायु के क्षेत्रों में जाडे के मौसम में की जाती है।

भूमि एवं खेत की तैयारीः-

मसूर की खेती प्रायः सभी प्रकार की भूमियों मे की जाती है। किन्तु दोमट एवं बलुअर दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। जल निकास की उचित  व्यवस्था वाली काली मिट्टी मटियार मिट्टी एवं लैटराइट मिट्टी में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है। हल्की अम्लीय (4.5.8.2 पी.एच.) की भूमियों में मसूर की खेती की जा सकती है। परन्तु उदासीन, गहरी मध्यम संरचना, सामान्य जलधारण क्षमता की जीवांष पदार्थयुक्त भूमियाँ सर्वोत्तम होती है।

बीज एवं बुआईः

  • सामान्यतः बीज की मात्रा 40 कि.ग्रा. प्रति हें. क्षेत्र में बोनी के लिये पर्याप्त होती है। बीज का आकार छोटा होने पर यह मात्रा 35 किलों ग्राम प्रति हें. होनी चाहियें। बडें दानों वाली किस्मों के लिये 50 कि.ग्रा. प्रति हें. उपयोंग करें।
  • सामान्य समय में बोआई के लिये कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. रखना चाहियें। देरी से बुआई के लिये कतारों की दूरी कम कर 25 सें.मी. कर देना चाहियें एवं बीज को 5.6 सें.मी. की गहराई पर उपयुक्त होती है।

बीजोपचार:

बीज जनित रोगों से बचाव के लिये 2 ग्राम थाइरम +1 ग्राम कार्वेन्डाजिम से एक किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोआई करनी चाहियें।

बुआई का समय:

असिंचित अवास्था में नमी उपलव्ध रहने पर अक्टूवर के प्रथम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक मसूर की बोनी करना चाहियें। सिंचित अवस्था में मसूर की बोनी 15 अक्टूबर से 15 नवम्वर तक की जनी चाहिये।

पौषक तत्व प्रबंधनः

मृदा की उर्वरता एवं उत्पादन के लिये उपलब्ध होने पर 15 टन अच्छी सडी गोबर की खाद व 20 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 50 कि.ग्रा. स्फुर / हें. एवं 20 कि.ग्रा./ हें. पोटास का प्रयोग करना चाहिये।

निंदाई-गुडाई:

खेत में नींदा उगयें पर हैन्ड हो या डोरा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करना चाहियें। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिये बुआई के 15 से 25 दिन बाद क्यूजेलोफाप 0.700 लि./ हें. प्रयोग करना चाहियें।

पौध सुरक्षाः

इस रोग का प्रकोप होने पर फसल की जडें गहरे भूरे रंग की हो जाती है तथा पत्तियाँ नीचे से ऊपर की ओर पीली पडने लगती है। तथा बाद में सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। किसी किसी पौधें की जड़े शिरा सडने से छोटी रह जाती है।

कालर राट या पद गलन

यह रोग पौघे पर प्रारंभिक अवस्था में होता है। पौधे का तना भूमि सतह के पास सड जाता है। जिससे पौधा खिचने पर बडी आसानी से निकल आता है। सडे हुये भाग पर सफेद फफुंद उग आती है जो सरसों की राई के समान भूरे दाने वाले फफूद के स्कलेरोषिया है।

जड़ सडन:

यह रोग मसूर के पौधो पर देरी से प्रकट होता है, रोग ग्रसित पौधे खेत में जगह जगह टुकडों में दिखाई देते है व पत्ते पीले पड जाते है तथा पौधे सूख जाते है। जड़े काली पड़कर सड़ जाती है। तथा उखाडने पर अधिक्तर पौधे टूट जाते है व जडें भूमि में ही रह जाती है।
(ब) रोग प्रबंधन
गर्मियों में गहरी जुताई करें।खेत में पकी हुई गोवर की खाद का ही प्रयोग करें।संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करे।बीज को 2 ग्राम थाइरम +1 ग्राम कार्वेन्डाजिम से एक किलोग्राम बीज या कार्बोक्सिन 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बोआई करनी चाहियें।उक्टा निरोधक व सहनशील जातियाँ जैसे जे.एल दृ3,जे.एल..1, नूरी, आई. पी. एल 81, आर. व्ही. एल दृ 31 का प्रयोग करें।
गेरूई रोग
इस रोग का प्रकोप जनवरी माह से प्रभावित होता है तथा संवेदनषील किस्मों में इससे अधिक क्षति होती है। इस रोग का प्रकोप होने पर सर्वप्रथम पत्तियों तथा तनों पर भूरे अथवा गुलावी रंग के फफोले दिखाई देते है जो बाद में काले पढ जाते है रोग का भीषण प्रकोप होने पर सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है।

रोग का प्रबंधन

प्रभावित फसल में 0.3% मेन्कोजेब एम-45 का 15 दिन के अन्तर पर दो बार अथवा हेक्जाकोनाजोल 0.1% की दर से छिडकाव करना चाहिये।

कीट नियंत्रण

मसूर की फसल में मुख्य रूप से माहु तथा फलीछेदक कीट का प्रकोप होता है। माहू का नियंत्रण इमिडाक्लोरपिड 150 मिलीलीटर / हें. एवं फली छेदक हेतु इमामेक्टीन बेजोइट 100 ग्रा. प्रति हें. की दर से छिडकाव करना चाहिये।

कटाई:

मसूर की फसल के पककर पीली पडने पर कटाई करनी चाहियें। पौधें के पककर सूख जाने पर दानों एवं फलियों के टूटकर झडने से उपज में कमी आ जाती है। फसल को अच्छी प्रकार सुखाकर बैलों के दायँ चलोर मडाई करते है तथा औसाई करके दाने को भूसे से अलग कर लेते है।

उपज:

मसूर की फसल से 20.25 कु./ हें. दाना एवं 30.40 कु./हें. भूसे की उपज प्राप्त होती है।

जवलपुर कार्यशाला के दौरान निर्धारित तकनीकी बिन्दु निम्नानुसार है।

  • उन्नतशील प्रजातियां – पी.एल. 5, पी.एल. 7, जे.एल 1, जे.एल. 3, एच.यू.एल. 57, के-75 का प्रमाणित बीज प्रयोग करें।
  • बीज उपचार हेतु 2 ग्रा. कर्बोक्सिन + थाइरम या 5 ग्रा. ट्राइकोडर्मा एंव थायोमिथाक्जाम 3 ग्रा./कि.ग्रा. एंव राइजोबियम तथा पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्रा./कि.ग्रा. की दर से बीजोपचार कर बोनी करें।
  • असिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में तथा अर्द्धसिंचित अवस्था में मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक बोनी करे।
  • छोटे दाने वाली किस्में 35 कि.ग्रा./हेक्टर तथा बडे़ दाने वाली किस्मों का 40 कि.ग्रा./हेक्टर बीज दर का प्रयोग करें।
  • उपलब्ध होने पर एक सिंचाई 45 दिन बाद और आवष्यक हो तो फलियां भरते समय सिंचाई करें।
  • माहू कीट की रोकथाम के लिये मेटासिटॉक्स 25 ई.सी. 5 ली./हेक्टर या ट्राइजोफॉस 40 ई.सी. 1 ली./हेक्टर 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें।
  • पाले से बचाव के लिये घुलनशील सल्फर (गंधक)1 प्रतिशत (1 ग्रा./लीटर पानी) का छिड़काव करे तथा मेढ़ो पर धुंआ एंव हल्की सिंचाई करें।
Tags: Cultivation of LentilKrushi Samratमसूर उत्पादन की उन्नत तकनीक
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