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चना फसल के रोग एवं कीटों की जानकारी और उपाय

Team Krushi Samrat by Team Krushi Samrat
March 25, 2019
in हिन्दी
1
चना फसल के रोग एवं कीटों की जानकारी और उपाय
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परिचय-

चने की खेती सिंचित एवं असिंचित दोनों परिस्थितियों में की जाती है। धान और गेहूं फसल चक्र के कारण इन खेतों की उर्वरकता में कमी आई है, धान की खेती के बाद चने की फसल बोने पर चने की बुवाई देर से होती है, जिससे कि तना छेदक कीटों तथा शुष्क मूल विगलन इत्यादि का प्रकोप अधिक होते है, संरक्षण के उपायों को अपना कर मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने या बनाये रखने के साथ – साथ कीटों एवं रोगों के संक्रमण से बचाया जा सकता है ताकि फसलों का कम से कम आर्थिक क्षति हों। पारंपारिक, यांत्रिक, जैविक एवं रासायनिक जीवनाशकों का प्रयोग इस प्रकार से किया जाता है की नाशीजीवों का प्रकोप फसलों में कम से कम हो, और पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचे और आर्थिक दृष्टि से स्वीकार्य हों। और ये ध्यान दिया जाता है कि रासायनिक दवाओं का कम से कम एवं अत्यंत आवश्यकता पड़ने पर ही उपयोग किया जाए।

यांत्रिक कीट प्रबंधन-

फली भेदक कीट की निगरानी हेतु 5 फेरोमोन ट्रैप/हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। हेलिकोवेरपा कीट के संदर्भ में संख्या आर्थिक हानि स्तर 1 सुंडी प्रति 1.5  मी. फसल लाइन है या 5 प्रतिशत ग्रसित फली या 8-10 मौथ/ट्रैप/लगातार 3 रात्रि तक। इस कीट का नियंत्रण कीट के आर्थिक हानि स्तर पर पहुँचतें ही तुरंत कर देना चाहिए अन्यथा कीट की संख्या आर्थिक हानि स्तर से अधिक हो जाने पर कीट नियंत्रण की लागत अत्यधिक हो सकती है।

नियंत्रण फसल की निगरानी करने से उकठा एवं सड़न से प्रभावित पौधों का पता प्रारंभिक अवस्था में ही लग जाता है, पक्षियों को आकर्षित करने के लिए T आकार के 3 – 5  फीट लंबे 20 खूँटी/हेक्टेयर लगाने चाहिए, जिससे कीटभक्षी पक्षियों को शिकार करने में सहायता पहुंचे। कुछ कीट भक्षी पक्षी बूबूलक्स इबीस, एक्रीडोथेरस ट्रिस्टिस, पेशन डोमेष्टिक्स, सिटेकुला क्रमेरी इत्यादि हैं।

जैविक कीट प्रबंधन-

चने के रोगों के रोकथाम के लिए सूक्ष्मजीवीय जीवनाशक जैसे ट्राईकोडर्मा एवं सूडोमोनास का उपयोग बीजोपचार के लिए करना चाहिए।

खेतों में एनपीवी, बीटी का प्रयोग करें। एचएएनपीवी/250 एल/ ई/हे. (1×109 पीओबी) अकेले या टिनोपाल (0.1 प्रतिशत पराबैंगनी किरणों के प्रभाव को रोकने के लिए) उपयोग करना चाहिए। अन्य समय के अपेक्षा शाम के समय में छिड़काव करने से अधिक प्रभावी होता है। बीटी फार्मूलेशन का 1.0 – 1.5 किलो ग्राम/ हे. के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।

इस फसल में प्राकृतिक शत्रु का अध्ययन मुख्यत: हेलिकोवर्पा पर केन्द्रित है। अंडा पारासिटाइड ट्राईकोग्रमा इस फसल पर अम्ल की उपस्थिति के कारण नहीं मिलते हैं।  कैम्पोलेटिस क्लोरिडी, यूसेलाटोनिया ब्रायेनी और कारसेलिया इलोटा के साथ जैव नियंत्रण में सीमित सफलता प्राप्त हुई है। खेतों में एनवीपी एवं बीटी हेलिकोवर्पा के नियंत्रण में कारगार पाए गये हैं।

रासायनिक कीट नियंत्रण-

वर्तमान में रासायनिक दवाओं का उपयोग नाशीजीव कीट एवं रोगों से ग्रसित पौधों को बचाने के लिए किया जा रहा है।

इससे न केवल नाशीजीव कीट एवं रोगों के प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है बल्कि इसका बुरा असर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हमारे देश से होने वाले चने के निर्यात पर पड़ता है आवश्यकता पड़ने पर ही रासायनिक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए और हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि एक ही रासायनिक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए और हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि एक ही रासायनिक दवा के बार- बार उपयोग के बजाय दवाओं के बदल – बदल कर विभिन्न तरह गुणों वाली दवाओं का प्रयोग करना चाहिए।

कीटनाशकों के कई समूह प्रमुख कीटों के खिलाफ कीटनाशकों का संयोजन प्रभावी पाए गये हैं। प्रतिरोधी उत्पन्नता, पुनरुत्थान और द्वितीयक प्रकोपों के कारण कीटनाशकों का संयोजन प्रभावी पाया गया है, विशेषकर नीम पर आधारित कीटनाशकों, जैविक कीटनाशकों जैसे बीटी और एनपीवी का सम्मिलित प्रभाव होता है।  इमामेकटीन  0.02 प्रतिशत के हिसाब पहली बार फूल खिलने के प्रारंभिक अवस्था में और दूसरी बार 15 दिनों के पश्चात् छिड़काव से फली छेदक का प्रकोप रूक जाता है। इसके अलावा साइप्रमेथ्रिन या क्लोरपाइरिफ़ास या फेनबेलरेट का भी प्रयोग कर सकते हैं।

चना में उकठा या उखेड़ा रोग-

यह चना की खेती का प्रमुख रोग है| उकठा रोग का प्रमुख कारक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूद है| यह सामान्यतः मृदा तथा बीज जनित बीमारी है, जिसकी वजह से 10 से 12 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आती है| यह एक दैहिक व्याधि होने के कारण पौधे के जीवनकाल में कभी भी ग्रसित कर सकती है| वैसे तो यह व्याधि सभी क्षेत्रों में फैल सकती है, परन्तु जहाँ ठण्ड अधिक और लम्बे समय तक पडती है, वहाँ पर कम होती है| यह व्याधि पर्याप्त मृदा नमी होने पर और तापमान 25 से 30 डिग्री सेन्टिग्रेड होने पर तीव्र गति से फैलती है|

इस बीमारी के प्रमुख लक्षण –

इसके नियंत्रण के लिए ट्राइकोड्रर्मा पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोंपचार करें। साथ ही चार किलोग्राम ट्राइकोड्रर्माको 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद मे मिलाकर बुवाई से पहले प्रति हैक्टयर की दर से खेत मे मिलाएं। खड़ी फसल मे रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्लयू.पी.0.2 प्रतिशत घोल का पौधों के जड़ क्षेत्र मे छिड़काव करें।

१ रोग ग्रसित चना के पौधे के उपरी हिस्से की पत्तियाँ और डंठल झुक जाते हैं|

(२)  चना का पौधा सूखना शुरू कर देता है और मरने के लक्षण दिखाई देने लगते हैं|

  1. सूखने के बाद पत्तियों का रंग भूरा या तने जैसा हो जाता है|
  2. वयस्क और अंकुरित पौधे कम उम्र में ही मर जाते हैं एवं भूमि की सतह वाले क्षेत्र में आंतरिक ऊतक भूरे या रंगहीन हो जाते हैं|
  3. यदि तने को लम्बवत् चीरा लगाएगें तो तम्बाकू के रंग की तरह धारी दिखाई पड़ती है| लेकिन, यह पतली और लम्बी धारी तने के ऊपर दिखाई नहीं देत

उपाय–

  1. चना की बुवाई उचित समय यानि अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक करें|
  2. गर्मियों मई से जून में गहरी जुताई करने से फ्यूजेरियम फफूंद का संवर्धन कम हो जाता है| मृदा का सौर उपचार करने से भी रोग में कमी आती है|
  3. पाच टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम्पोस्ट का प्रयोग करें|

४  बीज को मिट्टी में 8 से 10 सेंटीमीटर गहराई में गिराने से उखड़ा रोग का प्रभाव कम होता है

५ एक ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बोक्सिन या 2 ग्राम थिराम और 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरीडि प्रति किलोग्राम चना बीज की दर से बीजोपचार करें| इसी प्रकार, 1.5 ग्राम बेन्लेट टी (30 प्रतिशत बेनोमिल तथा 30 प्रतिशत थिराम) प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार मिट्टी जनित रोगाणुओं को मारने में लाभप्रद है|

६  चना की उकठा रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं जैसे- डी सी पी- 92-3, हरियाणा चना- 1, पूसा- 372, पूसा चमत्कार (काबुली), जी एन जी 663, के डब्ल्यू आर- 108, जे जी- 315, जे जी- 16 (साकी 9516), जे जी- 74, जवाहर काबुली चना- 1 (जे जी के- 1, काबुली), विजय, फूले जी- 95311 (काबुली)|

चाँदनी रोग-

चना में एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग एस्कोकाइटा रेबि नामक फफूंद द्वारा फैलता है| उच्च आर्द्रता और कम तापमान की स्थिति में यह रोग फसल को क्षति पहुँचाता है| पौधे के निचले हिस्से पर गेरूई रंग के भूरे कत्थई रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और संक्रमित पौधा मुरझाकर सूख जाता है| पौधे के धब्बे वाले भाग पर फफूद के फलनकाय (पिकनीडिया) देखे जा सकते हैं| ग्रसित पौधे की पत्तियों, फूलों और फलियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं|

उपाय-

१ चाँदनी से प्रभावित या ग्रसित बीज को नहीं उगाएँ|

  1. गर्मियों में गहरी जुताई करें और ग्रसित फसल अवशेष तथा अन्य घास को नष्ट कर दें|
  2. कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत और थिराम 50 प्रतिशत 1:2 के अनुपात में 3.0 ग्राम की दर से या ट्राइकोडर्मा 4.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज शोधन करें|
  3. चना में केप्टान या मेंकोजेब या क्लोरोवेलोनिल 2 से 3 ग्राम प्रति लीटर पानी का 2 से 3 बार छिड़काव करने से रोग को रोका जा सकता है|

धूसर फफूंद-

यह रोग चना में वोट्राइटिस साइनेरिया नामक फफूद से होता है| अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग आमतौर पर पौधों में फूल आने और फसल के पूर्णरूप से विकसित होने पर फैलता है| वायुमण्डल और खेत में अधिक आर्द्रता होने पर पौधों पर भूरे या काले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं| फूल झड़ जाते हैं और संक्रमित पौधों पर फलियाँ नही बनती हैं| शाखाओं एवं तनों पर जहाँ फफूद के संक्रमण से भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं, उस स्थान पर पौधा गल या सड़ जाता है

उपाय-

  1. चना की बुवाई देर से करने पर रोग का प्रकोप कम होता है|
  2. चना की रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन करें|
  3. इस रोग से प्रभावित क्षेत्रों में कतार से कतार की दूरी बढ़ाकर 45 सेंटीमीटर पर बुवाई करें, ताकि फसल को अधिक धूप और प्रकाश मिले तथा आर्द्रता में कमी आए|
  4. बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही तुरन्त केप्टान या काबेंडाजिम या मेंकोजेब या क्लोरोथेलोनिल का 2 से 3 बार एक सप्ताह के अन्तराल पर छिड़काव करें ताकि प्रकोप से बचा जा सके|

हरदा रोग-

चना का यह रोग यूरोमाईसीज साइसरीज (एरोटीनी) नामक फफूद से होता है| पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने और वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने पर इस रोग का आक्रमण होता है| पौधों के पत्तियों, तना, टहनियों और फलियों पर गोलाकार प्यालिनुमा सफेद भरे रंग का फफोले बनते हैं| बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं एवं पौधे सूख जाते हैं|

 

उपाय-

  1. चना की रोगरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए|
  2. चना बीज का फफूदनाशी से बीजोपचार करना चाहिए|
  3. फफूद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मेनकोजेब 75 प्रतिशत घुलन चूर्ण 2 किलोग्राम का सज्ञात्मक छिड़काव करना चाहिए|

पाला रोग-

वातावरण का तापमान बहुत कम हो जाने और रात में पछुआ हवा चलने पर पाला गिरने की संभावना बढ़ जाती है। तापमान बढ़ने पर कम प्रभावित चना के पौधे स्वस्थ रह जाते हैं, लेकिन अधिकतर मर जाते हैं|

उपाय –

  1. जिस खेत में सूत्रकृमि की संख्या ज्यादा हो उसमें कार्बोफ्यूरान 3 जी 25 से 30 किलोग्राम या फोरेट 10 जी 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना लाभप्रद होगा|
  2. चना का कार्बोसल्फान की उचित मात्रा से बीज उपचार करना लाभप्रद होगा|

मोजेक और बौना रोग-

मोजेक रोग में ऊपर की फुनगियाँ मुड़कर सूख जाती हैं एवं फलन कम होती हैं, जबकि बौना विषाणु रोग में पौधे छोटे, पीले, नारंगी या भूरा दिखाई पड़ते हैं| यह रोग लाही द्वारा स्वस्थ्य पौधे तक पहुँचाया जाता है| इसके अलावे मिट्टी में लोहे की कमी और लवण की अधिकता भी पौधे में रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं, जो समान रूप से नजर नहीं आते हैं|

उपाय-

  1. विषाणु रोग के फैलाव को रोकने के लिए लाही कीट का नियंत्रण हेतु एलो-स्टीकी-ट्रैप (पीला फंदा) एक हेक्टर में 20 फंदा लगावें|
  2. यदि इस कीट का पौधों पर एक समूह बन गया हो तो किसी अन्र्तव्यापि कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए|
  3. लोहे के कमी वाले क्षेत्र में 10 से 12 किलोग्राम फेरम सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए|

 

 

इस सत्र के लिए हम किसानों की सुविधा के लिए, यह जानकारी अन्य किसानों की सुविधा के लिए लेख आप krushisamrat1@gmail.com ई-मेल आईडी या 8888122799 नंबर पर भेज सकते है, आपके द्वारा सबमिट किया गया लेख / जानकारी आपके नाम और पते के साथ प्रकाशित की जाएगी।

Tags: Information about the crops and diseases of gram crops and pestsचना फसल के रोग एवं कीटों की जानकारी और उपाय
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