बेल भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग एवं धार्मिक फल है। बेल का मूल स्थान उत्तर भारत है, पर देश में कहीं भी इसके नियमित बागवानी नहीं होती है। यह रुटेसी कुल का पौधा है और उसका वानस्पतिक नाम एगिल मार्मेलोस हैं। हमारे देश में यह फल कई नामों से जाना जाता है जैसे बेल्वा, बेल, श्रीफल आदि।बेल वृक्ष हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। इस वृक्ष का इतिहास वैदिक काल में भी मिलता है। यजुर्वेद में बेल के फल का उल्लेख मिलता है। बेल के वृक्ष का पौराणिक महत्व है तथा इसे मंदिरों के आस-पास देखा जा सकता है। पत्तियों का उपयोग पारंपरिक रूप से भगवान शिव को चढ़ाने के लिए किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव बेल के वृक्ष के नीचे निवास करते हैं।
भूमि
बेल एक बहुत ही सहनशील वृक्ष है। इसे इसी भी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परन्तु जल निकासयुक्त बलुई दोमट भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त है। समस्याग्रस्त क्षेत्रों-ऊसर, बंजर, कंकरीली, खादर, बीहड़ भूमि में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। वैसे तो बेल की खेती के लिए 6-8 पी.एच मान वाली भूमि अधिक उपयुक्त होती है। भूमि में पी.एच मान 8.5 बेल की व्यावसायिक खेती की जा सकती है।
जलवायु
है।बेल के वृक्ष बहुत ही सहिउष्ण होते हैं और बिना किसी देख रेख जलवायु के ये सुखी या नम स्थानों में पैदा किए जा सकते हैं। इसकी बागवानी 1200 मीटर ऊँचाई तक और 6.66 सेंटीग्रेड तापमान तक सहनशील रहते हैं। इसके पेड़ की टहनियों पर कांटे पाये जाते हैं और मई-जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ झड़ जाती है, जिससे पौधों में शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती ।
उन्नत किस्में
पंत शिवानी, पंत अपर्णा, पंत उर्वशी, पंत सुजाता, सीआईएसएचबी-1 और वगैरह बेल की अच्छी किस्में हैं। इन किस्मों की बेल में रेशा और बीज बहुत ही कम होते हैं। इस किस्म की पैदावार प्रति पेड़ 40 से 60 किलो तक पाई जाती है। पौधे बीज से तैयार किए जाते हैं। मई और जून महीने में इनकी बुवाई की जाती है।देवरिया बड़ा, मिर्जापुरी, चकिया, बघेल, कागजी, गोड़ नं.-1, गोड़ नं.-3, बस्ती नं.-2, फैजाबाद ओलांग, फैजाबाद राउंड व नरेंद्र बेल नं.-5 येकुछ अन्यप्रजातीयाहै।
रोपण
पौधे लगाने का समय उत्तम जून व जुलाई का महिना है पौधे से पौधे और लाइन से लाइन कि दुरी भूमि कि उपजाऊ शक्ति के अनुसार 8 से 10 मीटर रखनी चाहिए मई से जून के प्रथम सप्ताह 8 से 10 कि दुरी पर एक मीटर ब्यास गहरे मीटर तक के गड्ढे तक खुले रहने चाहिए तत्पश्चात मिटटी व अच्छी सड़ी हुयी गोबर कि खाद बराबर मात्रा में और आर्गनिक खाद 8 स 15 दिनों खोदकर 2 किलो मिलाकर गड्ढे में भर देना चाहिए गड्ढे कि मिटटी बैठ कर ठोस हो जाय और उसमे पुन : खाद और का मिटटी मिश्रण डाल के भर दिया जाय दोबार भरने के बाद सिंचाई करना आवश्यक है ताकि गड्ढे कि मिटटी बैठ कर ठोस हो जाय तत्पश्चात जुलाई में पौधों का रोपण किया जाता है यदि खेत कि मिटटी चिकनी हो तो खेत कि मिटटी बालू और खाद बराबर बराबर मात्रा में मिला कर गड्ढा भरना चाहिए
खाद एवं उर्वरक
पौधों की अच्छी बढ़वार, अधिक फल और पेड़ों को स्वस्थ रखने के लिए प्रत्येक पौधे में 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 50 ग्राम नाइट्रोजन, 25 ग्राम फ़ॉस्फोरस और 50 ग्राम पोटाश की मात्रा प्रति वर्ष प्रति वृक्ष डालनी चाहिए। खाद और उर्वरक की यह मात्रा दस वर्ष तक इसी अनुपात में बढ़ाते रहना चाहिए। इस प्रकार 10 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले वृक्ष को 500 ग्राम नाइट्रोजन 250 ग्राम फ़ॉस्फोरस और 500 ग्राम पोटाश के अतिरिक्त 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डालना उत्तम होता है। ऊसर भूमि में उगाये गये पौधे में प्राय: जस्ते की कमी के लक्षण दिखाई देते हैं। अत: ऐसे पेड़ों में 250 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधे के हिसाब से उर्वरकों के साथ डालना चाहिए या 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का पर्णीय छिड़काव जुलाई, अक्टूबर व दिसम्बर में करना चाहिए। खाद और उर्वरकों की पूरी मात्रा जून-जुलाई में डालनी चाहिए। जिन बागों में फलों के फटने की समस्या हो उनमें खाद और उर्वरकों के साथ 100 ग्राम/वृक्ष बोरेक्स (सुहागा) का प्रयोग करना चाहिए।
सिंचाई –
बेल में सिंचाई कि आवश्यकता कम होती है नए पौधे को ग्रीष्म ऋतू में 7-8 दिन तथा शीत ऋतू में 10 -15 दिन के अंतर पर सिंचाई करते है पुराने पौधे में ग्रीष्म ऋतू के दिनों में 2025 दिन के अंतर पर सिंचाई करना पर्याप्त है .
छोटे फलों का गिरना
इस रोग का प्रकोप फ्यूजेरियमनामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में बेल के छोटे फल (2-3 इंच व्यास वाले) गिरते हैं। पहले डंठल वाले छोर पर फ्यूजेरियन फफूंद का संक्रमण होता है तथा एक भूरा छोटा घेरा फल के ऊपरी हिस्से पर विकसित होता है। डंठल और फल के बीच फफूंद विकसित होने से जुड़ाव कमजोर हो जाता है और फल गिर जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए जब फल छोटे हों, कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) का दो छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
डाई बैक
इस रोग का प्रकोप लेसिया डिप्लोडिया नामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में पौधों की टहनियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। टहनियों और पत्तियों पर भूरे धब्बे नजर आते हैं और पत्तियाँ गिर जाती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का दो छिड़काव सूखी टहनियों को छांट कर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
फलों का गिरना/आंतरिक विगलन
बेल के बड़े फल अप्रैल-मई बहुतायत में गिरते हैं। गिरे बेलों में आंतरिक विगलन के लक्षण पाये जाते हैं। साथ बाह्य त्वचा में फटन भी पायी जाती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए 300 ग्राम बोरेक्स प्रति वृक्ष का प्रयोग करना चाहिए। साथ जब फल छोटे आकार के हों तो एक प्रतिशत बोरेक्स का दो बार छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
फलों की तुड़ाई और उपज
फल अप्रैल-मई में तोड़ने योग्य हो जाते हैं। जब फलों का रंग गहरे हरे रंग से बदल कर पीला हरा होने लगे तो फलों की तुड़ाई 2 सेंमी. डंठल के साथ करनी चाहिए। तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि फल जमीन पर न गिरने पायें। इससे फलों की त्वचा चटक जाती है, जिससे भंडारण के समय चटके हुए भाग से सडन चटके हुए भाग से सडन आरंभ हो जाती है।कलमी पौधों में 3-4 वर्षों में फल प्रारंभ हो जाती है, जबकि बीजू पेड़ 7-8 वर्ष में फल देते हैं। प्रति वृक्ष फलों की संख्या वृक्ष के आकार के साथ बढ़ती रहती है। 10-15 वर्ष के पूर्ण विकसित वृक्ष से 100-150 फल प्राप्त किये जा सकते हैं।
भंडारण
पके हुए फलों को लगभग 15 दिनों तक रख सकते हैं। फलों को 18 से 24 दिनों में उपचारित करके कृत्रिम रूप से पकाकर (30 डिग्री सेल्सियस) में रखा जा सकता है। फलों को सुखी जगह में भंडारित करना चाहिए।
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