प्रत्येक देश का आर्थिक ढाँचा उस देश विशेष के प्राकृतिक साधनो एवं उनका शोषण, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों आदि से प्रभावित होता है, विशेषकर उन अल्प-विकसित राष्ट्रों में जहाँ की अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से कृषि प्रधान होती है।
प्राचीन काल से ही कृषि मानव के जीवन-यापन का प्रमुख साधन रही है। आधुनिक औद्योगिक युग में भी कृषि ही विश्व की अधिकांश जनसंख्या का प्रमुख व्यवसाय एवं आय का स्रोत है। वास्तव में कृषि समस्त उद्योगों की जननी, मानव जीवन की पोषक, प्रगति की सूचक तथा सम्पन्नता का प्रतीक समझी जाती है। तीव्र आर्थिक विकास की ओर उन्मुख वर्तमान गतिशील विश्व के समस्त विकसित एवं विकासशील देश अपने उपलब्ध संसाधनों का अपनी परिस्थितियों एवं क्षमताओं के अनुरूप यथासम्भव अनुकूलतम प्रयोग कर कृषि उत्पादों में परिमाणात्मक एवं गुणात्मक सुधार तथा प्रगतिशील एवं व्यावसायिक कृषि के विकास हेतु सचेत एवं सतत् प्रयासरत हैं।
विकासशील देशों में प्रधान व्यवसाय होने के कारण कृषि राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्रोत, रोजगार एवं जीवन-यापन का प्रमुख साधन, औद्योगिक विकास, वाणिज्य एवं विदेशी व्यापार का आधार है। कृषि इन देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तथा विकास की कुंजी है। कृषि विकास के सोपान पर चढ़कर ही विश्व के विकसित राष्ट्र आज आर्थिक विकास के शिखर पर पहुँच सके हैं। विकसित राष्ट्रों जैसे—इग्लैण्ड, जर्मनी, रूस तथा जापान आदि देशों के विकास में कृषि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा तीव्र औद्योगिकीकरण के लिए सुदृढ आधार प्रदान किया। यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक के विचारको ने कृषि विकास पर पर्याप्त बल दिया है।
केने (Quesnay) के अनुसार “कृषि राष्ट्र की समस्त सम्पत्ति तथा समस्त नागरिकों के धन का स्रोत है। अतः कृषि का लाभप्रद होना सरकार एवं राष्ट्र के लिए अनुकूल बात होगी।”
संक्षेप में, कृषि किसी राष्ट्र के आर्थिक प्रगति की सूचक होती है । कोई भी देश चाहे वह विकसित हो अथवा विकासशील, आर्थिक प्रगति के कितने भी ऊँचे शिखर पर क्यों न पहुँच जाए वह कृषि की उपेक्षा नहीं कर सकता। किसी भी देश के आर्थिक विकास में कृषि निम्न प्रकार से योगदान करती है।
- अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को खाद्यान्न एवं कच्चा माल उपलब्ध कराती है
- अन्य विस्तारोन्मुख क्षेत्रों को “निवेश योग्य अतिरेक” प्रदान करती है।
- बिक्री योग्य अतिरेक के विक्रय द्वारा ग्रामीण जनसंख्या को प्राप्त राशि से अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के उत्पादन की माँग में वृद्धि होती है।
- निर्यातों या आयात प्रतिस्थापन द्वारा विदेशी विनिमय के भार से छुटकारा दिलाती है।
- श्रमिकों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करती है।
कृषि के विषय में महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि “प्रारम्भ से ही यह मेरा अटूट विश्वास रहा है कि केवल कृषि हो इस देश के लोगों को अचूक एवं सतत् सहायता प्रदान करती है”
अतः स्पष्ट है कि कृषि प्रत्येक दशा में सामान्य आर्थिक विकास की दृष्टि से उपयोगी है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था उसी समय गतिशील अवस्था में स्वपोषित आर्थिक विकास की अवस्था को प्राप्त कर सकेगी जब कृषि-क्षेत्र का पर्याप्त विकास हो चुका हो।
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